उत्तर प्रदेश के लोक नृत्य (Folk dances of Uttar Pradesh)

उत्तर प्रदेश के लोक नृत्य

उत्तर प्रदेश के लोक नृत्य

उत्तर प्रदेश के लोक नृत्यों में क्षेत्र के अनुसार काफी भिन्नता देखने को मिलती है । उत्तर प्रदेश में लोक नृत्यों की एक समृद्ध परंपरा रही है,
उत्तर प्रदेश के प्रमुख लोक नृत्य निम्न प्रकार हैं-

झूला नृत्य- यह नृत्य बृज क्षेत्र का नृत्य है। इसका आयोजन श्रावण मास में किया जाता है, इस नृत्य को मंदिरों में भी किया जाता है ।

मयूर नृत्य- यह नृत्य भी ब्रज क्षेत्र का नृत्य है । इसमें नृत्य के दौरान मोर के पंख से बने विशेष वस्त्र धारण किए जाते हैं ।

नरसिंह नृत्य- यह भी बृज क्षेत्र का नृत्य है । ब्रज क्षेत्र में नरसिंह चतुर्दशी के दिन इस नृत्य का आयोजन किया जाता है । इसमें नरसिंह भगवान द्वारा हिरण्यकश्यप दैत्य और भगवान श्री राम कि छोटे भाई शत्रुघ्न द्वारा लवणासुर दैत्य के बध का प्रदर्शन किया जाता है ।

चरकुला नृत्य- यह भी बृज क्षेत्र का नृत्य है । बृज क्षेत्र में यह होली के आसपास किया जाता है, इस नृत्य में महिलाएं 108 दीपकों का चरकुला सिर पर रखकर नृत्य करती हैं ।

घड़ा नृत्य- यह भी बृज क्षेत्र का नृत्य है । इस नृत्य में बैलगाड़ी अथवा रथ के पहिए पर अनेक घड़े रखे जाते हैं, फिर उस पहिए को सिर पर रखकर नृत्य किया जाता है ।

कीर्तन नृत्य- यह भी बृज क्षेत्र का नृत्य है । ब्रज क्षेत्र में गौड़ीय परंपरा के लोग हारमोनियम व मजीरे की धुन पर हरिनाम का कीर्तन करते हुए यह नृत्य करते हैं ।

रास नृत्य- यह भी बृज क्षेत्र का नृत्य है, यह नृत्य ब्रज क्षेत्र में रासलीला के दौरान किया जाता है ।

ख्याल नृत्य- यह बुंदेलखंड क्षेत्र का नृत्य है । बुंदेलखंड क्षेत्र में पुत्र जन्मोत्सव पर यह नृत्य किया जाता है, इसमें रंगीन कागजों तथा बासों की सहायता से मंदिर बनाकर फिर उसे सिर पर रखकर नृत्य किया जाता है ।

घोड़ा नृत्य- यह भी बुंदेलखंड क्षेत्र का नृत्य है । यह नृत्य बुंदेलखंड क्षेत्र में शादी एवं अन्य मांगलिक अवसरों पर बाजों की धुन पर घोड़ों द्वारा कराया जाता है ।

देवी नृत्य- यह नृत्य भी बुंदेलखंड क्षेत्र में किया जाता है ।

राई नृत्य- यह भी बुंदेलखंड क्षेत्र का नृत्य है । यह नृत्य महिलाओं द्वारा मांगलिक अवसरों व श्री कृष्ण जन्माष्टमी आदि उत्सवों पर किया जाता है ।

पाई डंडा या मौनिया नृत्य- यह भी बुंदेलखंड क्षेत्र का नृत्य है । इसमें नर्तक पारंपरिक परिधान में माथे पर मोर पंख और पट्टी तथा पैरों में घुंघरू बांधे एक दूसरे पर डंडे का प्रहार करते हुए नृत्य करते हैं । इस नृत्य को बुंदेलखंड का डांडिया भी कहा जाता है ।

कानरा नृत्य- यह भी बुंदेलखंड क्षेत्र का नृत्य है । यह नृत्य स्त्री पुरुषों द्वारा विवाह उत्सवों पर किया जाता है ।

बरेदी या दीवारी नृत्य- यह भी बुंदेलखंड क्षेत्र का नृत्य है । बृज की लट्ठमार होली की तरह बुंदेलखंड क्षेत्र में दीपावली के अवसर पर पूरी रात ढोल नगाड़े की धुन पर दीवारी गीत गायन करते हुए यादव (बरेदी) समाज के लोग विशेष वेशभूषा में पैरों व कमर में घुंघरू बांध कर मजबूत लाठियों का एक दूसरे पर प्रहार करते हुए दीवारी नृत्य करते हैं । दीपावली के बाद भी यह नृत्य कई दिनों तक चलता रहता है ।

कठघोड़वा नृत्य- यह नृत्य उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल में किया जाता है । इसमें एक नर्तक अन्य नर्तकों के घेरे के अंदर कृतिम घोड़ी पर बैठकर नृत्य करता है ।

कहरउंआ नृत्य- यह नृत्य भी उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल में किया जाता है । यह नृत्य पूर्वांचल में अनेक शुभ अवसरों पर विशेष रूप से कहार समाज के लोगों द्वारा किया जाता है ।

नकटौरा नृत्य- यह नृत्य भी उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल में किया जाता है । पूर्वांचल में लड़कों के विवाह वाले घरों में बारात जाने के बाद उन घरों की महिलाएं, पुरुषों का वेश धारण कर रात भर हास-परिहास युक्त नाटक व नृत्य करती हैं । इस प्रकार के नृत्य प्रदेश के विभिन्न क्षेत्रों में किए जाते हैं तथा अलग-अलग नामों से जाने जाते हैं ।

जोगिनी नृत्य- यह नृत्य उत्तर प्रदेश के अवध क्षेत्र में प्रचलित है । यह नृत्य विशेषकर रामनवमी के त्यौहार पर किया जाता है । इसमें साधु या कोई अन्य पुरुष, महिला का रूप धारण करके नृत्य करते हैं ।

ढेढिया नृत्य- यह नृत्य भी अवध क्षेत्र का एक प्रसिद्ध लोक नृत्य है । यह नृत्य राम के लंका विजय के बाद वापस आने पर स्वागत के रूप में किया जाता है । इसमें छिद्रयुक्त मिट्टी के बर्तन में दीपक जला कर उसे सिर पर रखकर नृत्य किया जाता है ।

शैला या शैरा नृत्य- यह नृत्य सोनभद्र और मिर्जापुर जिलों के आदिम समाज के युवकों द्वारा कुछ प्रमुख अवसरों पर किया जाता है । इस नृत्य में पैरों में घुंघरू, कमर में मोर पंख व हाथ में डंडा लेकर नृत्य किया जाता है ।

करमा नृत्य- यह नृत्य भी सोनभद्र और मिर्जापुर जिलों में खरवार जनजाति के लोगों द्वारा खरीफ की फसल बोने के बाद व होली के अवसर पर किया जाता है । यह नृत्य पुरुषार्थ व पर्यावरण के प्रति जुड़ाव का प्रतीक माना जाता है।

ढरकहरी नृत्य- यह नृत्य भी सोनभद्र जिले में रहने वाली विभिन्न जनजाति के लोगों द्वारा किया जाता है । इसमें जानवरों के सींग लगे वाद्य यंत्र बजाकर नृत्य किया जाता है ।

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